Class 12th Subject Sociology Most Important Question Exam 2024 : कक्षा 12वीं के लिए समाजशास्त्र विषय से परीक्षा में पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण प्रश्न ,Sarkari Board
Class 12th Subject Sociology Most Important Question Exam 2024:
प्रश्न 1. समाज सुधार आंदोलन के रूप में रामकृष्ण मिशन की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर- विश्व प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण के नाम पर स्थापित रामकृष्ण मिशन समाज सुधार आंदोलन के क्षेत्र में अपना पृथक अस्तित्व रखता है यह मिशन शिक्षा तथा समाज सेवा के क्षेत्र में निःस्वार्थ भाव से मानव मात्र के कल्याण के लिए क्रियाशील है रामकृष्ण परमहंस सन् 1835 में बंगाल के एक गाँव में जन्मे थे। बचपन में ही इन्हें संगीत और कविता का बहुत शौक था ये इतने कल्पनाशील थे कि देवी-देवताओं की पूजा करते समय समाधिस्थ हो जाते थे। वे नाटकों में अभिनय भी करते थे। अभिनय में उन्हें परमानन्द का अनुभव प्राप्त होता था। रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता (कोलकाता) के काली मंदिर के मुख्य पुजारी थे वे काली के अनन्य भक्त थे निरंतर देवी के ध्यान-योग में वे लगे रहते थे । रामकृष्ण की आत्मिक शक्ति इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्होंने देवो का, राम और कृष्ण का साक्षात्कार किया था। कुछ दिन के लिए वे अपने गाँव गए और विवाह के पश्चात् पुनः मंदिर में आ गए। यहाँ उन्होंने वैष्णव धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम इत्यादि के विभिन्न सिद्धांतों का प्रयोग किया। रामकृष्ण ने सामान्य लोगों के लाभ की दृष्टि से कहानियों के माध्यम से दर्शनशास्त्रों की व्याख्या की है। वे आधुनिक परिस्थितियों के संदर्भ में धार्मिक रूपरेखा प्रस्तुत करना चाहते थे । उन्होंने घोषणा की कि दुःखी मानव की सेवा करना ही वास्तव में परमात्मा की पूजा करना है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर विद्यमान है; नम्रता, स्वार्थ, त्याग, पवित्रता और सबसे अधिक मनुष्य मात्र से प्रेम-भावना ही सच्ची भक्ति है। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आत्मिक शक्ति और व्यावहारिक अध्यात्मवाद से एक ऐसे महापुरुष की सृष्टि की जिसने भारत की दासता के दिनों में भी पाश्चात्य संसार के प्रत्येक छोटे-बड़े लोगों को इतना प्रभावित किया कि वे भारतमाता के उस सपूत के सामने नतमस्तक हो गए। यह महापुरुष स्वामी विवेकानन्द थे..
स्वामी विवेकानन्द ने सन् 1886 में अपने गुरु की मृत्यु के पश्चात् रामकृष्ण मिशन की स्थापना की विवेकानन्द की तीव्र बुद्धि, तेज और वाक् शक्ति से मोहित होकर देश-विदेश के अनेक लोग इस मिशन के सदस्य बन गए । विवेकानन्द ने अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में वेदान्त पर जो भाषण दिया वह भारतवर्ष के गौरव के इतिहास में स्मरणीय रहेगा। इस भाषण से मुग्ध होकर अनेक दार्शनिक, विद्वान इनके भक्त हो गए। यूरोप और अमेरिका के अनेक स्थानों पर विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति का प्रचार और प्रसार किया। विवेकानन्द केवल धार्मिक पुजारी नहीं थे। उन्होंने आध्यात्मिकता और राष्ट्रीयता का अद्भुत समन्वय करके भारतवासियों के मन में अपने देश, अपने धर्म, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा और आस्था उत्पन्न की। वास्तव में हजारों वर्षों के पश्चात् स्वामी विवेकानन्द ने विदेशों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त कराने का सफल प्रयास किया। वे ढोंग और आडंबर नहीं करते थे। उन्होंने भारतवासियों को निद्रा त्यागने और जागत होकर अपने देश को अपनी शक्ति और सामर्थ्य के आधार पर एक उन्नत राष्ट्र के रूप में खड़ा करने का आह्वान किया।
अथवा
ग्रामीण समुदाय एवं नगरीय समुदाय में अंतर स्पष्ट करें। उत्तर- ग्रामीण तथा नगरीय समुदाय में अंतर को निम्नलिखित आधार पर समझा जा सकता है : (i) जनसंख्या के आधार पर, (ii) पर्यावरण के आधार पर, (iii) आवास की प्रकृति के आधार पर, (iv) आर्थिक क्रियाओं की प्रकृति के आधार पर (v) प्रौद्योगिकी के आधार पर, (vi) सामाजिक संगठन के आधार पर ।
भारत की 72% जनसंख्या ग्रामीण समुदायों में निवास करती है। ग्रामीण खेती के द्वारा अपने जीविकोपार्जन करते हैं जबकि नगरीय समुदाय गैर कृषि कार्यों से अपना जीवन यापन करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत तकनीकों जैसे बैलगारी नावें, हल, आदि का इस्तेमाल होता है जबकि नगरीय क्षेत्रों में उत्तम प्रौद्योगिकी टैक्टर, मोटरगाड़ी आदि का इस्तेमाल होता है। ग्रामीण समुदाय में बाढ़, सूखे आकाल, महामारियाँ आदि प्राकृतिक संकटों की संभावना हमेशा बनी रहती है जबकि नगरीय क्षेत्र उससे कम प्रभावित होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं यथा शिक्षा संचार, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि का अभाव होता है जबकि नगरीय समुदाय इन बुनियादी सुविधाओं से सम्पन्न होते हैं। ग्रामीण समुदाय वे लोग एक विशेष भू-भाग पर स्थायी जीवन व्यतीत करते हैं जबकि नगरीय समुदाय में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की प्रवृति देखने को मिलती है।
प्रश्न 2. भारतीय समाज पर अनाधिक्य के कुप्रभावों का वर्णन करें
उत्तर- भारतीय समाज पर जनाधिक्य का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है हमारी अनेक आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ जनाधिक्य का ही परिणाम है बेरोजगारी, निम्न जीवन स्तर आर्थिक विषमताएं, श्रमिकों का शोषण, हिंसा, लूट व अपराधिक गतिविधियों में वृद्धि इन सब में किसी न किसी प्रकार से जनाधिक्य का हो योगदान है। उसे निम्न रूप में देखा जा सकता है ।
(i) जनाधिक्य और आर्थिक विकास यो मानव संसाधन विकास का महत्वपूर्ण स्रोत हैं किंतु अत्यधिक जनाधिक्य विकास के मार्ग को अवरूद्ध करते हैं। जनाधिक्य के कारण अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक भार पड़ता है जिससे आर्थिक विकास को धक्का लगता है ।
(ii) जनसंख्या वृद्धि और खाद्य समस्या अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में खाद्य समस्या का संकट लगातार बना रहता है। अतिरिक्त जनसंख्या को खाद्यान मुहैया कराना सरकार के लिए एक गंभीर चुनौती हैं।
(iii) जनसंख्या और मूल्य वृद्धि जनसंख्या वृद्धि के कारण बाजार में अतिरिक्त माँग के कारण कीमत में वृद्धि होती है जिससे सामान्य लोगों का जीवन स्तर गिरता है । मूल्य वृद्धि कारण अमीरी और गौरबी का फासला बढ़ता है ।
(iv) जनसंख्या वृद्धि और गरीबी जनसंख्या वृद्धि के कारण : में गरीबी बढ़ती है। उत्पादन का अधिकांश हिस्सा उपभोग पर खर्च हो जाता
है। ऐसी अर्थव्यवस्था में पूँजी निर्माण की दर धीमी होती है ।
(v) जनसंख्या वृद्धि और बेरोजगारी बेरोजगारी आज किसी भी समाज की महत्वपूर्ण समस्या बनी हुई है। भारत में बेरोजगारी की दर काफी ऊँची है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति वर्ष भारत में श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई हैं। जनसंख्या की तुलना में अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन दर में वृद्धि नहीं हुई है जिसके कारण देश बेरोजगारी एक गंभीर समस्या बनी हुई है ।
(vi) जनसंख्या वृद्धि और सामाजिक आर्थिक अवसंरचना जनसंख्या वृद्धि के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, यातायात, संचार आदि सुविधाएँ का आभाव लगातार बना हुआ है। अतिरिक्त जनसंख्या के पालन-पोषण पर ही देश के अधिकांश संसाधन व्यय हो जाते हैं।
(vii) जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण जनसंख्या वृद्धि के कारण पर्यावरण पर लगातार प्रभाव पड़ रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण वनों की कटाई, प्रदूषण आदि में वृद्धि हुई है जिसका पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वायुमण्डल में CO, की मात्रा लगातार बढ़ रही है जो अत्यधि के ताप के लिए उत्तरदायी है।
अथवा
2011 की जनगणना के संदर्भ में भारतीय आबादी की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करें। उत्तर- 2001 की जनगणना के सन्दर्भ में भारतीय आबादी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) भारत में स्वतन्त्रता के बाद जन्मदर और मृत्यु दर दोनों में कमी होने के बाद भी जनसंख्या का आकार तेजी से बढ़ता जा रहा है। भारत में प्रत्येक वर्ष लगभग 1.80 करोड़ जनसंख्या बढ़ जाती है।
(ii) भारतीय जनसंख्या में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों से सम्बन्धित लोगों का समावेश है। यहाँ इस्लाम धर्म को मानने वाला एक बड़ा हिस्सा परिवार नियोजन में विश्वास नहीं करता ।
(iii) यहाँ लगभग 72% लोग गाँवों में निवास करते हैं। गाँवों में साक्षरता की कमी और संयुक्त परिवारों के प्रचलन के कारण लोगों में जागरूकता नहीं है।
(iv) भारत में जीवन 2001 की गणना से स्पष्ट है कि यहाँ % ग ऐसे है जिसकी आयु 60 वर्ष से अधिक है।
(v) हमारे समाज की जनसंख्या में 15 से 59 वर्ष तक की आयु के लोगों की संख्या बढ़ी है। यह कार्यशील जनसंख्या बढ़ने के कारण ही आर्थिक विकास की दर में काफी वृद्धि सम्भव हो सकती है।
(vi) साक्षरता की दर दोगुना से अधिक होने के बावजूद भारतीय समाज के परम्परागत सामाजिक ढाँचे में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए।
(vii) स्थान परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ने के फलस्वरूप ही ग्रामीण जनसंख्या में कमी हो रही है, जबकि नगरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही हैं।
(viii) इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसमें विभिन्न धर्मों, भाषाओं, सम्प्रदायों, क्षेत्रों और सांस्कृतिक परम्पराओं वाले लोगों का समावेश होना है।
प्रश्न 3. भारतीय समाज में लिंग भेद के परिणामों की चर्चा करें।
उत्तर- जनसंख्या अध्ययन में किसी देश की जनसंख्या में लिंगानुपात अध्ययन के अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह तथा सन्तानोत्पादकता के के माध्यम से यह अनुपात देश की श्रम-शक्ति को प्रभावित करता है। इसी अनुपात पर किसी देश में पुरुषों की स्त्रियों की प्रति यौन प्रकृति अवलम्बित है। किसी देश में जनसंख्या का आकार तथा प्रवृत्ति इसी योन प्रकृति से संचालित होती है। सामान्यतः यह अनुभव किया जाता है कि महिलाओं में कार्य करने की शारीरिक शक्ति पुरुषों की अपेक्षा कम होती है। इसी कारण से वे उत्पादन के कार्यों में इतना अधिक सहयोग प्रदान नहीं कर पाती हैं जितना कि विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोग में परिणामत: देश की प्रति व्यक्ति आय घट जाती है। लिंग विषमता अनेक सामाजिक बुराइयों को जैसे वेश्यागमन व्यभिचार बलात्कार समलैंगिकता आदि को प्रोत्साहन देती है। इससे मनुष्य का सामाजिक शारीरिक तथा नैतिक पतन होता है तथा अनेक यौन रोग जैसे
सिलफिस, गोनिरिया, एडस् आदि होता है। स्त्रियों की संख्या की तुलना में पुरुषों की अधिक संख्या बाल-विवाह को प्रोत्साहित करती है। बाल विवाह के कारण पति-पत्नी की वैवाहिक आयु के अन्तर में वृद्धि हो जाती है जो वैधव्य का कारण बनती है। भारत में जनसंख्या की संरचना की प्रमुख विशेषता लिंगानुपात वैषम्य है। भारत की जनसंख्या पुरुष प्रधान है अर्थात् स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है।
भारत में लिंगानुपात नगरों तथा गाँवों दोनों में ही कम है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से लिंग वैषम्य नगरों में अधिक है। नगरों में लिंग वैषम्य की अधिकता का प्रमुख कारण यह है कि पुरुष जब नगरों में रोजगार की तलाश में जाते हैं तब उनके परिवार गाँवों में ही रहते हैं, जिसका परिणामस्वरूप नगरों की लिंग रचना पुरुष प्रधान हो जाती है। जहाँ तक गाँवों का प्रश्न हैं गाँवों में मजदूरी की निम्न दर पुरुषों को नगरों की ओर देशान्तरण के लिए बाध्य करती है।
अथवा
ग्रामीण समुदाय की प्रमुख समस्याएँ क्या हैं ?
उत्तर- भारत ग्रामों का देश कहलाता है। भारत में लगभग साढ़े पाँच लाख गाँव है । कृषि मुख्य व्यवसाय है। यद्यपि जनसंख्या का एक छोटा सा ‘भाग अन्य कार्यों को करता है परन्तु प्रायः वे कार्य भी कृषि पर ही आध रित है। ग्रामीण परिवेश आज भी भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । ग्रामों को अपना सामाजिक, पारम्परिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व है। ग्रामीण समुदाय की मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
(i) कृषि मुख्य व्यवसाय कृषि भारत में जीवनयापन का साधन ही नहीं है, वरन् यह एक जीवन शैली है। ग्रामीण परिवेश के सही संबंध कृषि द्वारा प्रभावित होते हैं। कृषि के अतिरिक्त ग्रामों में कुम्हार, बढ़ई, लुहार आदि दस्तकार भी होते हैं, परन्तु वे भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर रहते हैं।
(ii) जाति व्यवस्था- जाति व्यवस्था सदैव भारतीय ग्रामीण समुदाय का आधार रही है। सामाजिक अंतः क्रिया, धार्मिक अनुष्ठान, व्यवसाय और अन्य बातें काफी सीमा तक जाति में मापदंडों से प्रभावित होते हैं ।
(iii) जजमानी व्यवस्था यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और अर्थिक बंधन दूसरे जातिगत परिवारों से संबंधित होते हैं । प्रत्येक गाँव में दो प्रकार के परिवार रहते हैं एक तो वे हैं जो भूमि के स्वामी हैं और दूसरे वे जो सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं। सेवाओं के बदले में अन्न और नकद मुद्रा प्रदान की जाती है। त्योहारों के अवसर पर पारिश्रमिक और पुरस्कार भी प्रदान किये जाते हैं। यह जजमानी प्रथा विभिन्न जातियों को स्थायी संबंधों में बाँधे रखती है ।
(iv) निर्धनता और अशिक्षा- ग्रामीण जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करता है । यहाँ मौलिक नागरिक सुविधाओं का भी अभाव होता है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, संचार के साधनों की कमी से जीवन स्तर नीचा है। यद्यपि सरकार ने ग्रामों की दशा सुधारने के लिए बहुत प्रयत्न किए हैं, परन्तु कृषि की उत्पादकता कम है और नागरिक सुविधाओं की कमी है।
(V) रूढ़िवाद – भारत के ग्रामों में सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी है। व्यवसय में परिवर्तन आसानी से सम्भव नहीं है। ग्रामीण स्वभाव से ही होते हैं। उनके सोचने का आधार नैतिक मूल्य और परम्पराएँ सभी रूढिवाद पर निर्भर करते हैं ।
(vi) कठोर सामाजिक नियंत्रण- परिवार, जाति और धर्म की कट्टरता बहुत अधिक होती है। सदस्यों के लिए अनौपचारिक नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक होता है। पंचायत गलत कामों के लिए लोगों को दंडित करती है।
प्रश्न 4. माक्स के पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। पण्यीकरण को उदाहरण सहित समझाइए ।
उत्तर- मार्क्स के पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धान्त ने 19वीं और 20वीं शताब्दियों में पूँजीवाद के स्वरूप के बारे में अनेक सिद्धान्तों को प्रेरित किया। मार्क्स ने पूँजीवाद को पण्य उत्पादन या बाजार के लिए उत्पादन करने की व्यवस्था के रूप में समझा जो कि श्रमिक की मजदूरी पर आधारित है। मार्क्स ने लिखा कि सभी आर्थिक व्यवस्थाएँ सामाजिक व्यवस्थाएँ भी हैं। हर उत्पादन विधि विशेष उत्पादन संबंधों से बनती है और विशिष्ट वर्ग संरचना का निर्माण करती है। मार्क्स ने इस बात पर जोर दिया कि अर्थव्यवस्था चीजों से नहीं बल्कि लोगों के बीच रिश्तों से बनती है जो उत्पादन की प्रक्रिया के द्वारा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। उत्पादन विधि के अंतर्गत मजदूरी या श्रम भी एक टिकाऊ सामान बन जाता है, क्योंकि मजदूरों को अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचकर ही अपनी मजदूरी है। इस तरह दो आधारभूत वर्गों का गठन होता है-
(1) पूँजीपति, जो उद्योगों के मालिक होते हैं। (2) श्रमिक, जो उद्योगों में कार्य करते हैं।
पूँजीपति अमिकों को उनके काम के बराबर पैर नहीं देते जिससे उन्हें इस व्यवस्था से मुनाफा होता है और वे श्रम के अतिरिक्त मूल्य निकाल लेते हैं। पण्यीकरण- यह तब होता है जब कोई वस्तु बाजार में बेची-खरीदो न जा सकती हो और अब वह बाजार में बिकने वाली चीज बन गई है। जैसे- श्रम व कौशल ऐसी चीजें हैं जो खरीदी व बेची जा सकती हैं। माक्स और पूँजीवाद के अन्य आलोचकों के अनुसार, पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव हैं। श्रम का पण्यीकरण के अलावा अन्य उदाहरण भी हैं
जो पण्यीकरण को समझाते हैं, जैसे-गरीब लोगों द्वारा अपनी किडनी को अमीर लोगों को बेचना। बहुत से लोगों का मानना है कि मानव अंगों का पण्यीकरण होना चाहिए । कुछ अन्य चीजें भी जो पहले बाजार का हिस्सा नहीं थीं, अब वे बाजार में मिलने वाली वस्तुएँ बन गई हैं। जैसे-विवाह पहले परिवार के लोगों द्वारा तय किए जाते थे, पर अब व्यावसायिक विवाह ब्यूरो की भरमार है जो वेबसाइट या किसी और माध्यम से लोगों का विवाह तय कराते हैं। अनेक निजी संस्थान जो व्यक्तित्व सँवारने, अंग्रेजी बोलना और अन्य चीजों के लिए पाठ्यक्रमों को चलाते हैं, तथा विद्यार्थी को सामाजिक कौशल सिखाते हैं। पहले सामाजिक शिष्टाचार जो परिवार में सिखाए जाते थे, वहीं आज ये कौशल निजी संस्थानों, जैसे-नए विद्यालय, महाविद्यालय और कोचिंग क्लासे में सिखाए जाते हैं। पूँजीवादी समाज की अन्य विशेषता है कि उपभोग अधिक से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है और इसके सिर्फ आर्थिक कारण नहीं हैं बल्कि प्रतीकात्मक अर्थ भी हैं। आधुनिक समाजों में उपभोग एक महत्त्वपूर्ण तरीका है जिसके द्वारा सामाजिक भिन्नता का निर्माण होता है। और उन्हें प्रदर्शित किया जाता है। उपभोक्ता अपनी सामाजिक, आर्थिक स्थिति या सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को कुछ विशेष वस्तुओं को खरीदकर या उनका प्रदर्शन कर प्रदर्शित करता है और कंपनियाँ उन बातों पर विचार करती हैं और अपने सामान, प्रस्थिति या संस्कृति के प्रतीकों के आधार पर बनाती व बेचती हैं। समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक मैक्स वेबर ने कहा कि लोग जो सामान खरीदते हैं, एवं उनका उपयोग करते हैं वे समाज में उनकी प्रस्थिति से गहनता से जुड़े होता है ।
अथवा
सम्प्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है ? उत्तर-सम्प्रदायवाद या साप्रदायिकता – इसका अर्थ है- धार्मिक पहचान पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद यह विचारधारा कि धर्म ही व्यक्ति या समूह की पहचान के अन्य सभी पक्षों की तुलना में सर्वोपरि होता है। यह उन व्यक्तियों के समूह के प्रति आक्रामक और शत्रुतापूर्वक रवैया होता है जो दूसरे धर्मों को मानते हैं अथवा जिनकी गैर-धार्मिक पहचान होती है। साम्प्रदायिकता धर्म से सरोकार न रखकर बल्कि राजनीति से जुड़ी होती है। सम्प्रदायवादी आक्रामक राजनीतिक पहचान बनाते हैं और ऐसे व्यक्तियों को निंदा करने या आक्रमण करने को तैयार रहते हैं जो उनकी पहचान का साझेदार नहीं होता। अर्थात् सम्प्रदायवादी दूसरे धर्म व जाति के लोगों को नींचा या कमजोर समझकर उन पर आक्रमण करते हैं। सम्प्रदायवादी धर्म के साथ भी जुड़े होते हैं व श्रद्धालु भी हो सकते हैं और नहीं भी। भारत में साम्प्रदायवाद तनाव और हिंसा का एक स्रोत बन गया है। सम्प्रदायवाद के कारण झगड़े, दंगे-फसाद, खून-खराबा ‘आदि होना भारत में साधारण मुद्दा बन गया है। सांप्रदायिक दंगों के दौरान लोग अपने-अपने समुदायों के पहचानहीन सदस्य बन जाते हैं। वे अपने अभिमान के लिए लूट-पाट, दूसरे समुदायों के लोगों की हत्या, बलात्कार इत्यादि करने को तैयार हो जाते हैं। भारत में कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो किसी न किसी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा से पूरी तरह मुक्त हो। प्रत्येक धार्मिक समुदाय को सांप्रदायिक दंगों का
सामना करना पड़ा है। उदाहरण के लिए-दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगे कांग्रेस के राज्य में व 2002 में गुजरात में मुसलमान विरोधी हिंसा भारतीय जनता पार्टी के शासन में चला अर्थात् इन दंगों के पीछे सरकार की राजनीतिक चालें होती हैं। अल्पसंख्यक वर्गों को इन सांप्रदायिक दंगों से अत्यधिक हानि हुई है।
उपनिवेश काल से पहले भी सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। ये दंगे अक्सर औपनिवेशिक शासकों द्वारा अपनाई गई ‘फूट डालो और शासन करो’ नोति के परिणामस्वरूप हुआ करते थे। अतः भारतीय इतिहास के अन्तर्गत ये सांप्रदायिक दंगे स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भी भीषण रूप लिए हुए थे व अब भी लिए हुए हैं। अतः स्पष्ट शब्दों में सांप्रदायिकता राजनीतिक तौर पर देश में बंटवारा व झगड़े करवाने की दोषपूर्ण त्रुटि है।